पिथौरागढ़ जिले के कनार गांव में स्थित कोकिला माता भगवती मंदिर में ऐसा दमाऊ है, जिसका वजन लगभग एक क्विंटल है। इसे उत्तराखंड का सबसे बड़ा पारंपरिक दमाऊ माना जाता है। इसकी गूंज न केवल मंदिर परिसर में बल्कि आसपास के क्षेत्रों में भी महसूस होती है। कनार के अलावा जारा जिबली गांव में भी लगभग 80 किलो वजनी दैन दमाऊ है। इन दमाऊ को तांबे का बनाया जाता है और इन्हें बजाने के लिए लकड़ी के डंडे, जिन्हें लुकुड़ कहते हैं, इस्तेमाल किए जाते हैं। भारी होने के बावजूद इन्हें बजाने वाले पूरी आस्था और पारंपरिक लय में डूबे रहते हैं। कुमाऊं में छोटे दमाऊ को बौं दमाऊ (बायां दमाऊ) और बड़े दमाऊ को दैन दमाऊ (दाहिना दमाऊ) कहा जाता है। मंदिरों में जागर और विशेष पूजा अवसरों पर इन्हें देवी-देवताओं के आवाहन और मंगल कार्यों में बजाया जाता है। दमाऊ की थाप पर ही छलिया नृत्य जैसी लोक कलाएं जीवंत हो उठती हैं। देवी देवताओं को समर्पित होते हैं दमाऊ कुमाऊं में कहीं कहीं बड़े दमाऊ की जगह ढोल भी बजाया जाता है। मुख्य रूप से यह दमौं देवी-देवताओं को समर्पित होते हैं और इनका अधिकांश उपयोग देवी-देवताओं के मंदिरों में जागर और विशेष पूजा के अवसर पर किया जाता है। इन्हीं ढोल दमाऊ की थाप पर देव डंगरियों पर अवतरित होकर देवता नृत्य करते हैं। दमौं के साथ तुरही, भकोर भी बजाए जाते हैं। पूरी आस्था के साथ बजाया जाता है यह भारी भरकम दमाऊ पिथौरागढ़ के कनार गांव में जो दैन दमौं है उसे भारी वजन के कारण बजाना आसान नहीं होता है। इसके बावजूद जगरिए ढोल दमौं वादक विशेष लय ताल के साथ बजाते हैं। इस दमौं को बजाने के दौरान वह पूरी तरह से आस्था में डूबे रहते हैं। स्थानीय जीवन सिंह ने बताया कि इस दमौं को बजाने से पहले इसमें पानी भरा जाता है। इससे इसका वजन दोगुना हो जाता है। ऐसे में दमाऊ को डंडे पर लटकाकर दो लोग कंधों पर उठाते हैं। इसके बाद एक व्यक्ति इस दमाऊ को बजाता है। तब दमाऊ की आवाज से पेड़ों की टहनियों में भी कंपन महसूस होता है। दमौं की धुन पर ही होता है खूबसूरत छलिया नृत्य कुमाऊं का प्रमुख छलिया नृत्य भी दमाऊ की धुन पर ही होता है। इस नृत्य ने अब वैश्विक पहचान भी बना ली है। आजकल होने वाले विवाह समारोहों की शान माने जाने वाले छलिया दल इन्हीं दमाऊ की ताल के अनुसार नृत्य करते हैं। दमाऊ के साथ झाली और मशकबीन इन वाद्य यंत्रों की धुन को और अधिक मधुर बना देते हैं। अब जानिए ढोल-दमाऊ का इतिहास और महत्व… ढोल सागर में है 1200 श्लोकों का वर्णन उत्तराखंड के पहाड़ी समाज में ढोल-दमाऊ सदियों से सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। इतिहासकारों के अनुसार, ढोल मूलतः पश्चिम एशियाई वाद्य यंत्र है जिसे 15वीं शताब्दी में भारत लाया गया था। भारत में इसका पहला उल्लेख “आईन-ए-अकबरी” में मिलता है। गढ़वाल में लगभग 16वीं शताब्दी के आसपास ढोल बजाने की परंपरा शुरू हुई। युद्ध के मैदानों में सैनिकों के उत्साह और कुशल नेतृत्व के लिए इसे प्रयोग में लाया जाता था। धीरे-धीरे यह कला युद्धक्षेत्र से निकलकर समाज के धार्मिक और सामाजिक जीवन में प्रवेश कर गई। उत्तराखंड की लोककला में ढोल-दमाऊ ने अपनी विशेष जगह बनाई और आज भी यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही है। इन वाद्य यंत्रों के माध्यम से विभिन्न ताल और संगीत के स्वरूपों का निर्माण हुआ, जिसे ‘ढोल सागर’ कहा जाता है, जिसमें लगभग 1200 श्लोकों का वर्णन है। शिव-शक्ति के प्रतीक के रूप में देख जाते हैं ढोल-दमाऊ ढोल-दमाऊ केवल वाद्य यंत्र नहीं हैं, बल्कि यह पहाड़ी समाज की संस्कृति, लोककला और धार्मिक जीवन की आत्मा से जुड़े हैं। इन्हें मंगल वाद्य के रूप में पूजा जाता है और किसी भी शुभकार्य या समारोह के आरंभ में इनकी गूंज अनिवार्य मानी जाती है। लोकश्रुति के अनुसार, इनकी उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से हुई और इन्हें शिव-शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। ढोल-दमाऊ के माध्यम से न केवल देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है, बल्कि विशेष अवसरों जैसे शादी, हल्दी हाथ, बारात प्रस्थान और विभिन्न पूजा-अनुष्ठानों में इनके अलग-अलग ताल बजाए जाते हैं। आज भी गढ़वाली समाज में आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच, ढोल-दमाऊ की परंपरा जीवित है और इसे बजाकर नृत्य और सामाजिक मेलजोल की अनुभूति होती है। पहाड़ों में यह कला न केवल सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है, बल्कि धार्मिक और सामाजिक ऊर्जा का भी रूप है।
पिथौरागढ़ जिले के कनार गांव में स्थित कोकिला माता भगवती मंदिर में ऐसा दमाऊ है, जिसका वजन लगभग एक क्विंटल है। इसे उत्तराखंड का सबसे बड़ा पारंपरिक दमाऊ माना जाता है। इसकी गूंज न केवल मंदिर परिसर में बल्कि आसपास के क्षेत्रों में भी महसूस होती है। कनार के अलावा जारा जिबली गांव में भी लगभग 80 किलो वजनी दैन दमाऊ है। इन दमाऊ को तांबे का बनाया जाता है और इन्हें बजाने के लिए लकड़ी के डंडे, जिन्हें लुकुड़ कहते हैं, इस्तेमाल किए जाते हैं। भारी होने के बावजूद इन्हें बजाने वाले पूरी आस्था और पारंपरिक लय में डूबे रहते हैं। कुमाऊं में छोटे दमाऊ को बौं दमाऊ (बायां दमाऊ) और बड़े दमाऊ को दैन दमाऊ (दाहिना दमाऊ) कहा जाता है। मंदिरों में जागर और विशेष पूजा अवसरों पर इन्हें देवी-देवताओं के आवाहन और मंगल कार्यों में बजाया जाता है। दमाऊ की थाप पर ही छलिया नृत्य जैसी लोक कलाएं जीवंत हो उठती हैं। देवी देवताओं को समर्पित होते हैं दमाऊ कुमाऊं में कहीं कहीं बड़े दमाऊ की जगह ढोल भी बजाया जाता है। मुख्य रूप से यह दमौं देवी-देवताओं को समर्पित होते हैं और इनका अधिकांश उपयोग देवी-देवताओं के मंदिरों में जागर और विशेष पूजा के अवसर पर किया जाता है। इन्हीं ढोल दमाऊ की थाप पर देव डंगरियों पर अवतरित होकर देवता नृत्य करते हैं। दमौं के साथ तुरही, भकोर भी बजाए जाते हैं। पूरी आस्था के साथ बजाया जाता है यह भारी भरकम दमाऊ पिथौरागढ़ के कनार गांव में जो दैन दमौं है उसे भारी वजन के कारण बजाना आसान नहीं होता है। इसके बावजूद जगरिए ढोल दमौं वादक विशेष लय ताल के साथ बजाते हैं। इस दमौं को बजाने के दौरान वह पूरी तरह से आस्था में डूबे रहते हैं। स्थानीय जीवन सिंह ने बताया कि इस दमौं को बजाने से पहले इसमें पानी भरा जाता है। इससे इसका वजन दोगुना हो जाता है। ऐसे में दमाऊ को डंडे पर लटकाकर दो लोग कंधों पर उठाते हैं। इसके बाद एक व्यक्ति इस दमाऊ को बजाता है। तब दमाऊ की आवाज से पेड़ों की टहनियों में भी कंपन महसूस होता है। दमौं की धुन पर ही होता है खूबसूरत छलिया नृत्य कुमाऊं का प्रमुख छलिया नृत्य भी दमाऊ की धुन पर ही होता है। इस नृत्य ने अब वैश्विक पहचान भी बना ली है। आजकल होने वाले विवाह समारोहों की शान माने जाने वाले छलिया दल इन्हीं दमाऊ की ताल के अनुसार नृत्य करते हैं। दमाऊ के साथ झाली और मशकबीन इन वाद्य यंत्रों की धुन को और अधिक मधुर बना देते हैं। अब जानिए ढोल-दमाऊ का इतिहास और महत्व… ढोल सागर में है 1200 श्लोकों का वर्णन उत्तराखंड के पहाड़ी समाज में ढोल-दमाऊ सदियों से सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। इतिहासकारों के अनुसार, ढोल मूलतः पश्चिम एशियाई वाद्य यंत्र है जिसे 15वीं शताब्दी में भारत लाया गया था। भारत में इसका पहला उल्लेख “आईन-ए-अकबरी” में मिलता है। गढ़वाल में लगभग 16वीं शताब्दी के आसपास ढोल बजाने की परंपरा शुरू हुई। युद्ध के मैदानों में सैनिकों के उत्साह और कुशल नेतृत्व के लिए इसे प्रयोग में लाया जाता था। धीरे-धीरे यह कला युद्धक्षेत्र से निकलकर समाज के धार्मिक और सामाजिक जीवन में प्रवेश कर गई। उत्तराखंड की लोककला में ढोल-दमाऊ ने अपनी विशेष जगह बनाई और आज भी यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही है। इन वाद्य यंत्रों के माध्यम से विभिन्न ताल और संगीत के स्वरूपों का निर्माण हुआ, जिसे ‘ढोल सागर’ कहा जाता है, जिसमें लगभग 1200 श्लोकों का वर्णन है। शिव-शक्ति के प्रतीक के रूप में देख जाते हैं ढोल-दमाऊ ढोल-दमाऊ केवल वाद्य यंत्र नहीं हैं, बल्कि यह पहाड़ी समाज की संस्कृति, लोककला और धार्मिक जीवन की आत्मा से जुड़े हैं। इन्हें मंगल वाद्य के रूप में पूजा जाता है और किसी भी शुभकार्य या समारोह के आरंभ में इनकी गूंज अनिवार्य मानी जाती है। लोकश्रुति के अनुसार, इनकी उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से हुई और इन्हें शिव-शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। ढोल-दमाऊ के माध्यम से न केवल देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है, बल्कि विशेष अवसरों जैसे शादी, हल्दी हाथ, बारात प्रस्थान और विभिन्न पूजा-अनुष्ठानों में इनके अलग-अलग ताल बजाए जाते हैं। आज भी गढ़वाली समाज में आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच, ढोल-दमाऊ की परंपरा जीवित है और इसे बजाकर नृत्य और सामाजिक मेलजोल की अनुभूति होती है। पहाड़ों में यह कला न केवल सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है, बल्कि धार्मिक और सामाजिक ऊर्जा का भी रूप है।