
बस्तर के बीहड़ में अब सिर्फ गोलियों की गूंज नहीं होती, वहां नक्सलियों में DRG की स्ट्रेटजी और चक्रव्यूह का खौफ दिखाई दे रहा है। डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड ये एक ऐसी लोकल फोर्स है, जो नक्सलियों के गढ़ को घेरकर लाल आतंक का खात्मा कर रही है। जंगल की पगडंडियों पर जब DRG के सैकड़ों कमांडोज निकलते हैं, तो नक्सल नेटवर्क में कंपकपी दौड़ जाती है। DRG का चक्रव्यूह ऐसा होता है, जिसमें नक्सली फंसते हैं तो वापस लौट नहीं पाते। नक्सल लीडर बसवाराजू जैसे 400 से ज्यादा नक्सलियों को ढेर करने में अहम भूमिका इसकी सबसे बड़ी गवाही है। ये कमांडोज शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद मजबूत हैं। जंगल में बिना रास्ते के रास्ता बना लेते हैं, जहां पानी तक मुश्किल से पहुंचे, वहां एक दिन में 50 किलोमीटर पैदल चलकर ऑपरेशन को अंजाम देते हैं। अगर कई दिनों तक जंगल में खाना न मिले तो कंदमूल-फल खाकर भी रह लेते हैं। पढ़िए इस रिपोर्ट में क्या है DRG, कैसे ऑपरेशन लॉन्च करती है, क्या खासियत है, कैसे नक्सलियों के लिए काल बनी हुई है ?……. पहले ये तीन तस्वीरें देखिए …. चलिए जानते हैं क्या है DRG का इतिहास… DRG से पहले बस्तर के अलग-अलग जिलों में नक्सल ऑपरेशन के लिए छोटी-छोटी टीम हुआ करती थी। इनकी संख्या कहीं 50 से 60 तो कहीं 100 से 150 थी। 2015 से पहले बस्तर जिले में इस टीम को ‘क्रैक टीम’ कहा जाता था। कांकेर में ‘E-30’, जबकि सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर के जवान खुद को ‘कमांडोज’ कहते थे। पहली बार नारायणपुर से उठा DRG नाम नारायणपुर जिले के नक्सल ऑपरेशन में जाने वाले जवान खुद को DRG यानी डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड कहने लगे। ये नाम काफीअट्रेक्टिव था। हर जिले की टीम का अलग-अलग नाम भले ही था, लेकिन सब का मकसद सिर्फ एक ही था- ‘नक्सल ऑपरेशन’। इसलिए पुलिस विभाग और तत्कालीन सरकार ने साल 2015 में बस्तर के सातों जिले में नक्सल ऑपरेशन पर जाने वाली टीम का नाम ऑफिशियल रूप से ‘DRG’ रख दिया। नई भर्ती हुई, सरेंडर्ड नक्सलियों को भी लिया गया 2015 से पहले भी इस टीम में सरेंडर्ड नक्सली थे। सलवा जुडूम के दौरान सरेंडर किए नक्सलियों को भी इसमें रखा गया था। वहीं साल 2015 के बाद DRG का विस्तार करने के लिए हर एक जिले में नई भर्तियां शुरू की गई थीं। वर्तमान में हर एक जिले में 60 प्रतिशत सीधी भर्ती के जवान हैं, जबकि 40 प्रतिशत सरेंडर्ड नक्सली हैं। वर्तमान में संभाग के सातों जिले में सैकड़ों की संख्या में जवान तैनात हैं। सुरक्षा के लिहाज से हम DRG की संख्या नहीं बता रहे। 2 से ढाई साल ऑब्जर्वेशन में रहते हैं ऐसा नहीं है कि किसी नक्सली ने आज सरेंडर किया और महीनेभर के अंदर उसे हथियार थमा दिए, DRG में शामिल कर दिए। बल्कि सरेंडर करने वाले नक्सली जब DRG में शामिल होने की इच्छा जताते हैं तो उन्हें 2 से ढाई साल तक ऑब्जर्वेशन में रखा जाता है। हालांकि, ये कैडर और उनकी वर्तमान स्थिति को भी देखकर निर्णय लिया जाता है। उनकी गतिविधि देखी जाती है। फिर उन्हें ट्रेनिंग देकर DRG में शामिल किया जाता है। स्पेशल ट्रेनिंग होती है नक्सलियों से जंग लड़ने से पहले जवानों को शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार किया जाता है। इन्हें जंगल वॉर की स्पेशल कमांडोज ट्रेनिंग दी जाती है। पूरी तरह से जब ये तैयार होते हैं तब इन्हें नक्सलियों से लड़ने उतारा जाता है। लोकल लड़कों की मैपिंग, सरेंडर्ड कैडर की स्ट्रेटजी आती है काम DRG में सिर्फ स्थानीय युवाओं की ही भर्ती का प्रावधान है। ज्यादातर अंदरूनी इलाके के लड़के भर्ती हुए हैं। इन्हें क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, जंगल की मैपिंग, पेड़-पौधे, नदी-नालों का अच्छा खासा ज्ञान है, जबकि सरेंडर्ड नक्सलियों को ये पता होता है कि नक्सली अगली ट्रिक कौन सी अपनाएंगे। DRG जंगल वॉर में इतनी माहिर उनका ऑपरेशन के दौरान अगला मूवमेंट कौन सा होगा। इन दोनों के तालमेल की वजह से कामयाबी मिलती है। बस्तर में तैनात अन्य फोर्स के मुकाबले DRG जंगल वॉर में इतनी माहिर होती है कि एक दिन में ही 50-50 किमी का सफर तय कर लेती है। अगर जंगल में खाना न भी हो तो इन्हें ये पता होता है कि कौन सा पेड़, कौन सा पौधा, कौन सा जंगली कंदमूल, फल इनकी भूख मिटा सकता है, जिसे खाकर वे जंगल में आसानी से कई रात काट सकते हैं। लोकल लैंग्वेज की जनकारी, इसलिए ग्रामीणों से कर पाते हैं कनेक्ट DRG में तैनात जवान बस्तर के ही हैं। ऐसे में उन्हें हल्बी और गोंडी बोली आती है, जिससे वे अंदरूनी इलाके के ग्रामीणों के साथ अच्छा तालमेल स्थापित कर लेते हैं, जिससे नक्सल ऑपरेशन में उन्हें फायदा मिलता है। पुरुष ही नहीं, महिला DRG भी कर रही एनकाउंटर नक्सलियों के खिलाफ सिर्फ पुरुष DRG ही नहीं बल्कि महिला DRG भी जंग लड़ रही है। साल 2019-20 में सबसे पहले दंतेवाड़ा में महिला DRG का गठन हुआ था। इस टीम का नाम दंतेश्वरी फाइटर्स रखा गया। जिसके बाद सुकमा में भी महिला कमांडोज की टीम बनाई गई। जिसका नाम दुर्गा फाइटर्स है। ये भी ऑपरेशन पर जाती हैं। नक्सलियों का एनकाउंटर करती हैं। इन हमलों में DRG जवानों की हुई शहादत IG बोले- इन्हें अच्छी समझ, इसलिए नहीं होती गलतियां बस्तर IG सुंदरराज पी ने कहा कि, सरेंडर्ड नक्सलियों के पास भी अच्छी खासी इन्फॉर्मेशन होती है। उनकी मॉनिटरिंग के बाद ही उन्हें DRG में शामिल करते हैं। DRG जवान लोकल लैंग्वेज जानते हैं इसलिए कहीं भी कोई कम्युनिकेशन गैप नहीं होता है।
बस्तर के बीहड़ में अब सिर्फ गोलियों की गूंज नहीं होती, वहां नक्सलियों में DRG की स्ट्रेटजी और चक्रव्यूह का खौफ दिखाई दे रहा है। डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड ये एक ऐसी लोकल फोर्स है, जो नक्सलियों के गढ़ को घेरकर लाल आतंक का खात्मा कर रही है। जंगल की पगडंडियों पर जब DRG के सैकड़ों कमांडोज निकलते हैं, तो नक्सल नेटवर्क में कंपकपी दौड़ जाती है। DRG का चक्रव्यूह ऐसा होता है, जिसमें नक्सली फंसते हैं तो वापस लौट नहीं पाते। नक्सल लीडर बसवाराजू जैसे 400 से ज्यादा नक्सलियों को ढेर करने में अहम भूमिका इसकी सबसे बड़ी गवाही है। ये कमांडोज शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद मजबूत हैं। जंगल में बिना रास्ते के रास्ता बना लेते हैं, जहां पानी तक मुश्किल से पहुंचे, वहां एक दिन में 50 किलोमीटर पैदल चलकर ऑपरेशन को अंजाम देते हैं। अगर कई दिनों तक जंगल में खाना न मिले तो कंदमूल-फल खाकर भी रह लेते हैं। पढ़िए इस रिपोर्ट में क्या है DRG, कैसे ऑपरेशन लॉन्च करती है, क्या खासियत है, कैसे नक्सलियों के लिए काल बनी हुई है ?……. पहले ये तीन तस्वीरें देखिए …. चलिए जानते हैं क्या है DRG का इतिहास… DRG से पहले बस्तर के अलग-अलग जिलों में नक्सल ऑपरेशन के लिए छोटी-छोटी टीम हुआ करती थी। इनकी संख्या कहीं 50 से 60 तो कहीं 100 से 150 थी। 2015 से पहले बस्तर जिले में इस टीम को ‘क्रैक टीम’ कहा जाता था। कांकेर में ‘E-30’, जबकि सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर के जवान खुद को ‘कमांडोज’ कहते थे। पहली बार नारायणपुर से उठा DRG नाम नारायणपुर जिले के नक्सल ऑपरेशन में जाने वाले जवान खुद को DRG यानी डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड कहने लगे। ये नाम काफीअट्रेक्टिव था। हर जिले की टीम का अलग-अलग नाम भले ही था, लेकिन सब का मकसद सिर्फ एक ही था- ‘नक्सल ऑपरेशन’। इसलिए पुलिस विभाग और तत्कालीन सरकार ने साल 2015 में बस्तर के सातों जिले में नक्सल ऑपरेशन पर जाने वाली टीम का नाम ऑफिशियल रूप से ‘DRG’ रख दिया। नई भर्ती हुई, सरेंडर्ड नक्सलियों को भी लिया गया 2015 से पहले भी इस टीम में सरेंडर्ड नक्सली थे। सलवा जुडूम के दौरान सरेंडर किए नक्सलियों को भी इसमें रखा गया था। वहीं साल 2015 के बाद DRG का विस्तार करने के लिए हर एक जिले में नई भर्तियां शुरू की गई थीं। वर्तमान में हर एक जिले में 60 प्रतिशत सीधी भर्ती के जवान हैं, जबकि 40 प्रतिशत सरेंडर्ड नक्सली हैं। वर्तमान में संभाग के सातों जिले में सैकड़ों की संख्या में जवान तैनात हैं। सुरक्षा के लिहाज से हम DRG की संख्या नहीं बता रहे। 2 से ढाई साल ऑब्जर्वेशन में रहते हैं ऐसा नहीं है कि किसी नक्सली ने आज सरेंडर किया और महीनेभर के अंदर उसे हथियार थमा दिए, DRG में शामिल कर दिए। बल्कि सरेंडर करने वाले नक्सली जब DRG में शामिल होने की इच्छा जताते हैं तो उन्हें 2 से ढाई साल तक ऑब्जर्वेशन में रखा जाता है। हालांकि, ये कैडर और उनकी वर्तमान स्थिति को भी देखकर निर्णय लिया जाता है। उनकी गतिविधि देखी जाती है। फिर उन्हें ट्रेनिंग देकर DRG में शामिल किया जाता है। स्पेशल ट्रेनिंग होती है नक्सलियों से जंग लड़ने से पहले जवानों को शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार किया जाता है। इन्हें जंगल वॉर की स्पेशल कमांडोज ट्रेनिंग दी जाती है। पूरी तरह से जब ये तैयार होते हैं तब इन्हें नक्सलियों से लड़ने उतारा जाता है। लोकल लड़कों की मैपिंग, सरेंडर्ड कैडर की स्ट्रेटजी आती है काम DRG में सिर्फ स्थानीय युवाओं की ही भर्ती का प्रावधान है। ज्यादातर अंदरूनी इलाके के लड़के भर्ती हुए हैं। इन्हें क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, जंगल की मैपिंग, पेड़-पौधे, नदी-नालों का अच्छा खासा ज्ञान है, जबकि सरेंडर्ड नक्सलियों को ये पता होता है कि नक्सली अगली ट्रिक कौन सी अपनाएंगे। DRG जंगल वॉर में इतनी माहिर उनका ऑपरेशन के दौरान अगला मूवमेंट कौन सा होगा। इन दोनों के तालमेल की वजह से कामयाबी मिलती है। बस्तर में तैनात अन्य फोर्स के मुकाबले DRG जंगल वॉर में इतनी माहिर होती है कि एक दिन में ही 50-50 किमी का सफर तय कर लेती है। अगर जंगल में खाना न भी हो तो इन्हें ये पता होता है कि कौन सा पेड़, कौन सा पौधा, कौन सा जंगली कंदमूल, फल इनकी भूख मिटा सकता है, जिसे खाकर वे जंगल में आसानी से कई रात काट सकते हैं। लोकल लैंग्वेज की जनकारी, इसलिए ग्रामीणों से कर पाते हैं कनेक्ट DRG में तैनात जवान बस्तर के ही हैं। ऐसे में उन्हें हल्बी और गोंडी बोली आती है, जिससे वे अंदरूनी इलाके के ग्रामीणों के साथ अच्छा तालमेल स्थापित कर लेते हैं, जिससे नक्सल ऑपरेशन में उन्हें फायदा मिलता है। पुरुष ही नहीं, महिला DRG भी कर रही एनकाउंटर नक्सलियों के खिलाफ सिर्फ पुरुष DRG ही नहीं बल्कि महिला DRG भी जंग लड़ रही है। साल 2019-20 में सबसे पहले दंतेवाड़ा में महिला DRG का गठन हुआ था। इस टीम का नाम दंतेश्वरी फाइटर्स रखा गया। जिसके बाद सुकमा में भी महिला कमांडोज की टीम बनाई गई। जिसका नाम दुर्गा फाइटर्स है। ये भी ऑपरेशन पर जाती हैं। नक्सलियों का एनकाउंटर करती हैं। इन हमलों में DRG जवानों की हुई शहादत IG बोले- इन्हें अच्छी समझ, इसलिए नहीं होती गलतियां बस्तर IG सुंदरराज पी ने कहा कि, सरेंडर्ड नक्सलियों के पास भी अच्छी खासी इन्फॉर्मेशन होती है। उनकी मॉनिटरिंग के बाद ही उन्हें DRG में शामिल करते हैं। DRG जवान लोकल लैंग्वेज जानते हैं इसलिए कहीं भी कोई कम्युनिकेशन गैप नहीं होता है।