
छत्तीसगढ़ में एक एनकाउंटर में देश का सबसे बड़ा माओवादी लीडर एन. केशवराव उर्फ बसवा राजू मारा गया। बेहद कम लोगों को यह जानकारी होगी कि बसवा राजू के बड़े भाई एन. दिलेश्वर राव एयरफोर्स के रिटायर्ड ऑफिसर हैं। यानी एक भाई नक्सलियों का टॉप लीडर था। वहीं दूसरा अंडमान निकोबार में एयरफोर्स का पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर रहा। उनकी ख्याति का अंदाजा आप इस बात से लगाइए कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब अंडमान निकोबार पहुंचे, तो उन्होंने खुद एन. दिलेश्वर से मिलने की इच्छा जताई। 4 मिनट मुलाकात का समय तय हुआ और मुलाकात एक घंटे तक चली। एन. दिलेश्वर राव इस समय आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के जियानपेट्टा गांव में हैं। भास्कर डिजिटल ने उनसे संपर्क किया। उन्हें हिंदी नहीं आती। हमने उन्हें प्रश्न भेजे और उन्होंने अंग्रेजी में उसका जवाब दिया। बसवा राजू के बचपन, विचारधारा, पढ़ाई और अब उसकी लाश को लेकर भी एन दिलेश्वर राव ने अपनी बात भास्कर डिजिटल के सामने रखी है- पढ़िए पूरा इंटरव्यू सवाल- बसवा राजू आपके छोटे भाई हैं? उन्होंने भी इंजीनियरिंग की। आपने देश की रक्षा के लिए एयरफोर्स का रास्ता चुना। उनकी आइडियोलॉजी नक्सलवाद की तरफ कैसे मुड़ गई? जवाब: हां, वो मेरा छोटा भाई था। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। वो REC का स्टूडेंट था और बहुत प्रतिभावान छात्र था। स्टेट लेवल का कबड्डी प्लेयर भी था। मैं सबसे बड़ा भाई हूं। 1971 के युद्ध के दौरान सरकार ने युवाओं से रक्षा बलों में शामिल होने की अपील की थी, उसी समय मैंने एयरफोर्स जॉइन किया। मैंने हमेशा उसे सपोर्ट किया और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उसमें काबिलियत थी। उस समय मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि वो माओवादी विचारधारा की ओर जा रहा है। बाद में पता चला कि वो RSU (रेडिकल स्टूडेंट यूनियन) से जुड़ा हुआ था और उसका समर्थन करता था। सवाल- क्या आप लोग हमेशा मिलते-जुलते रहते थे? आपकी आखिरी मुलाकात कब और किस माहौल में हुई थी? जवाब: जब भी मैं छुट्टियों में घर आता था, तो वारंगल में उसके साथ कुछ दिन जरूर बिताता था। उस वक्त वो कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था। हमारे बीच रिश्ता सिर्फ भाई का नहीं बल्कि दोस्त जैसा था। हम दोनों काफी अटैच थे। वो मेरे प्रति पूरी तरह वफादार और सच्चा था। सवाल- आपके पिताजी शिक्षक थे। गांव के स्कूल में पढ़ाते थे। क्या उन्हें पता था कि बसवा राजू नक्सल विचारधारा से प्रभावित है? इस पर उनका क्या नजरिया था? जवाब: मेरे पिता गांव के बेहतरीन शिक्षकों में से एक थे। हमारे गांव में लगभग 80 प्रतिशत लोग शिक्षित थे। एक समय ऐसा था जब गांव से क्लास-1 के 23 ऑफिसर निकले थे। मेरे पिता और उनके भाई भी शिक्षक थे। उन्होंने 1942 के आसपास, ब्रिटिश शासन के समय, गांव में एक स्कूल शुरू किया था। उस वक्त सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली थी। उनका उद्देश्य था कि गांव के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, क्योंकि श्रीकाकुलम एक पिछड़ा इलाका था। मेरे पिता ने कभी कम्युनिज्म को अपना आदर्श नहीं माना। वो अच्छे किसान भी थे और लगभग 25 एकड़ जमीन पर खेती करते थे। हम भी, मैं और बसवा राजू खेती में उनके साथ हाथ बंटाते थे। हमारा मूलतः किसान परिवार था, बाद में हम शिक्षा की ओर बढ़े। मेरे पिता को भी इस बात की भनक नहीं थी कि उनका बेटा कभी माओवाद की राह पर जाएगा। सवाल- जब आप राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मिले, उन्होंने आपकी सराहना की। वो क्या किस्सा था? इस समय बसवा राजू कहां था? जवाब: वो उस समय RSU का छात्र नेता था। उस पर केस हुआ और पुलिस ने गिरफ्तारी शुरू कर दी। उस समय मेरी पोस्टिंग विशाखापट्टनम् के मिनिस्ट्री ऑफ शिपिंग में थी। इसके बाद मैं गोवा, बेंगलुरु और फिर अंडमान निकोबार में पोर्ट्स के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर और पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर के तौर पर तैनात रहा। मैं सुनामी के समय अंडमान में ही था और वहां आदिवासियों की मदद में लगा रहा। CEO रहते हुए पुनर्वास और राहत के कार्य में सक्रिय रहा। भारत सरकार ने मेरे कार्यों की सराहना की। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब वहां दौरे पर आए, तब उन्हें मेरे कामों के बारे में बताया गया। उस समय मैं दक्षिणी द्वीप में था और राहत कार्यों में लगा था। राष्ट्रपति ने अधिकारियों से कहा कि मुझे बुलाने की बजाय वो खुद मुझसे मिलने आएंगे। अगली सुबह वे आए। कार्यक्रम सिर्फ 4 मिनट का था, लेकिन वे करीब एक घंटा मेरे साथ रहे। उन्होंने हर काम का ब्यौरा लिया, द्वीपवासियों की स्थिति के बारे में पूछा और सारी बातें सुनीं। उसी शाम उन्होंने मुझे डिनर पर बुलाया और मुझसे कहा, “क्या मैं आपके साथ एक फोटो ले सकता हूं?” ये मेरी जिंदगी का कभी ना भूलने वाला वाकया था। सवाल- आपके आदर्श कौन थे? और बसवा राजू किन्हें अपना आदर्श मानता था? जवाब: मेरे लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुभाष चंद्र बोस जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी आदर्श रहे हैं। उनके बलिदान से प्रेरणा लेकर ही मैंने एयरफोर्स जॉइन की। अगर कोई मेरे व्यक्तिगत रोल मॉडल की बात करे तो मेरे पिता सबसे बड़े रोल मॉडल थे। वे एक किसान थे, लेकिन बच्चों की पढ़ाई के लिए हमेशा अपना सब कुछ झोंक देते थे। जो स्कूल उन्होंने और उनके भाइयों ने शुरू किया था, वो बाद में सरकारी स्कूल बना। मेरे लिए उनसे बड़ा कोई आदर्श नहीं है। बसवा राजू का आदर्श कौन था, ये मैं नहीं कह सकता। सवाल- आपके गांव में नक्सलवाद का प्रभाव था? किस दौर की बात है? उस वक्त माहौल कैसा था? क्या चर्चाएं होती थीं? जवाब: जब मैं स्कूल में था, हमारे इलाके में नक्सल गतिविधियां थीं, जिनकी हमें जानकारी थी। किसान वर्ग जमींदारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। उस समय हम छात्र थे और ये सारी बातें हमें किसी हद तक प्रेरित करती थीं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम सब नक्सली बन गए। मैं खुद सबसे बैकवर्ड क्लास में पैदा हुआ हूं। सवाल- परिवार को कब पता चला कि बसवा राजू नक्सलवाद की राह पर चल पड़ा है? क्या तब लगा कि अब उसका लौटना संभव नहीं? परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी? जवाब: जब हमें पता चला कि बसवा राजू माओवादी विचारधारा से जुड़ गया है, तो हम बहुत दुखी हुए। मैं चाहता था कि वह एमटेक करे, एक अच्छा करियर बनाए, एक अच्छा सरकारी अधिकारी बने, और अपने परिवार को सपोर्ट करे। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। सवाल- परिवार को डेड बॉडी नहीं मिली? आपने आखिरी बार उसे कब देखा था? जवाब: हम बहुत परेशान हैं। मैं 72 साल का हूं और वो 70 साल का था। मैं और मेरी बहनें बहुत दुखी हैं। हम सब रो रहे हैं। 45 सालों से हमने उसे देखा नहीं है। हमने आंध्र और छत्तीसगढ़ पुलिस दोनों से संपर्क किया। उन्होंने कहा – गाड़ी लेकर आओ, शव ले जाओ। हमने 6 लोगों के साथ गाड़ी भेजी। एसपी ने हमें बुलाया, मैं गया। उन्होंने कहा, छत्तीसगढ़ जाओ, वहीं अंतिम संस्कार करो। तब मैंने कहा – ये बहुत अमानवीय है, ये मानवाधिकारों के खिलाफ है। बॉडी परिवार को मिलनी चाहिए ताकि हम गांव में अंतिम संस्कार कर सकें। मैं कैसे हजारों की संख्या में अपने गांव के जान-पहचान वाले, परिवार वाले, आसपास के लोगों को छत्तीसगढ़ ले जाऊं? मैंने बाकी परिवार से बात की, कोई भी छत्तीसगढ़ में अंतिम संस्कार के लिए राज़ी नहीं था। गांव के लोग भी यही चाहते थे कि संस्कार गांव में हो। जगदलपुर पुलिस ने पहले कहा कि वो मदद करेंगे लेकिन आधे घंटे बाद ही उनका व्यवहार बदल गया। उन्होंने हमारे लोगों को धमकाया, मारने की बात कही और कहा – छत्तीसगढ़ तुरंत छोड़कर चले जाओ। बॉर्डर पर आंध्रप्रदेश पुलिस आई और हमारे लोगों को वापस ले गई। उन्होंने कहा, हमारे परमिशन के बिना छत्तीसगढ़ क्यों गए? एक पुलिस अधिकारी ने साफ धमकी दी, इस तरह की हरकतें कीं तो अंजाम भुगतना होगा। मैंने देश की सेवा की, और इसके बदले में यही रिवॉर्ड मिल रहा है। आगे कहा कि, मैं मेडिसिन के सहारे जी रहा हूं। 145 करोड़ जनता के बीच हम क्या ही हैं। हमें मार दो…मेरे भाई ने आदिवासियों और वंचितों की लड़ाई लड़ी। जो यूनिफॉर्म में लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके मरने पर आप उन्हें शहीद कहते हो और जो लोग गरीब और आदिवासियों के लिए मर रहे हैं उन्हें आप क्रिमिनल कहते हैं। लोकतंत्र की ये हालत है। मार दो हमें…हमें भी नक्सली बता दो। हम मीडिया के सामने आना भी नहीं चाहते…क्या आपने मुझे कभी मीडिया में देखा है? लेकिन जो सिचुएशन क्रिएट हुई है, इस वजह से हमें मीडिया के सामने आना पड़ रहा है। या तो हमें मार दो या हम सुसाइड कर लेते हैं।
छत्तीसगढ़ में एक एनकाउंटर में देश का सबसे बड़ा माओवादी लीडर एन. केशवराव उर्फ बसवा राजू मारा गया। बेहद कम लोगों को यह जानकारी होगी कि बसवा राजू के बड़े भाई एन. दिलेश्वर राव एयरफोर्स के रिटायर्ड ऑफिसर हैं। यानी एक भाई नक्सलियों का टॉप लीडर था। वहीं दूसरा अंडमान निकोबार में एयरफोर्स का पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर रहा। उनकी ख्याति का अंदाजा आप इस बात से लगाइए कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब अंडमान निकोबार पहुंचे, तो उन्होंने खुद एन. दिलेश्वर से मिलने की इच्छा जताई। 4 मिनट मुलाकात का समय तय हुआ और मुलाकात एक घंटे तक चली। एन. दिलेश्वर राव इस समय आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के जियानपेट्टा गांव में हैं। भास्कर डिजिटल ने उनसे संपर्क किया। उन्हें हिंदी नहीं आती। हमने उन्हें प्रश्न भेजे और उन्होंने अंग्रेजी में उसका जवाब दिया। बसवा राजू के बचपन, विचारधारा, पढ़ाई और अब उसकी लाश को लेकर भी एन दिलेश्वर राव ने अपनी बात भास्कर डिजिटल के सामने रखी है- पढ़िए पूरा इंटरव्यू सवाल- बसवा राजू आपके छोटे भाई हैं? उन्होंने भी इंजीनियरिंग की। आपने देश की रक्षा के लिए एयरफोर्स का रास्ता चुना। उनकी आइडियोलॉजी नक्सलवाद की तरफ कैसे मुड़ गई? जवाब: हां, वो मेरा छोटा भाई था। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। वो REC का स्टूडेंट था और बहुत प्रतिभावान छात्र था। स्टेट लेवल का कबड्डी प्लेयर भी था। मैं सबसे बड़ा भाई हूं। 1971 के युद्ध के दौरान सरकार ने युवाओं से रक्षा बलों में शामिल होने की अपील की थी, उसी समय मैंने एयरफोर्स जॉइन किया। मैंने हमेशा उसे सपोर्ट किया और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उसमें काबिलियत थी। उस समय मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि वो माओवादी विचारधारा की ओर जा रहा है। बाद में पता चला कि वो RSU (रेडिकल स्टूडेंट यूनियन) से जुड़ा हुआ था और उसका समर्थन करता था। सवाल- क्या आप लोग हमेशा मिलते-जुलते रहते थे? आपकी आखिरी मुलाकात कब और किस माहौल में हुई थी? जवाब: जब भी मैं छुट्टियों में घर आता था, तो वारंगल में उसके साथ कुछ दिन जरूर बिताता था। उस वक्त वो कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था। हमारे बीच रिश्ता सिर्फ भाई का नहीं बल्कि दोस्त जैसा था। हम दोनों काफी अटैच थे। वो मेरे प्रति पूरी तरह वफादार और सच्चा था। सवाल- आपके पिताजी शिक्षक थे। गांव के स्कूल में पढ़ाते थे। क्या उन्हें पता था कि बसवा राजू नक्सल विचारधारा से प्रभावित है? इस पर उनका क्या नजरिया था? जवाब: मेरे पिता गांव के बेहतरीन शिक्षकों में से एक थे। हमारे गांव में लगभग 80 प्रतिशत लोग शिक्षित थे। एक समय ऐसा था जब गांव से क्लास-1 के 23 ऑफिसर निकले थे। मेरे पिता और उनके भाई भी शिक्षक थे। उन्होंने 1942 के आसपास, ब्रिटिश शासन के समय, गांव में एक स्कूल शुरू किया था। उस वक्त सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली थी। उनका उद्देश्य था कि गांव के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, क्योंकि श्रीकाकुलम एक पिछड़ा इलाका था। मेरे पिता ने कभी कम्युनिज्म को अपना आदर्श नहीं माना। वो अच्छे किसान भी थे और लगभग 25 एकड़ जमीन पर खेती करते थे। हम भी, मैं और बसवा राजू खेती में उनके साथ हाथ बंटाते थे। हमारा मूलतः किसान परिवार था, बाद में हम शिक्षा की ओर बढ़े। मेरे पिता को भी इस बात की भनक नहीं थी कि उनका बेटा कभी माओवाद की राह पर जाएगा। सवाल- जब आप राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मिले, उन्होंने आपकी सराहना की। वो क्या किस्सा था? इस समय बसवा राजू कहां था? जवाब: वो उस समय RSU का छात्र नेता था। उस पर केस हुआ और पुलिस ने गिरफ्तारी शुरू कर दी। उस समय मेरी पोस्टिंग विशाखापट्टनम् के मिनिस्ट्री ऑफ शिपिंग में थी। इसके बाद मैं गोवा, बेंगलुरु और फिर अंडमान निकोबार में पोर्ट्स के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर और पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर के तौर पर तैनात रहा। मैं सुनामी के समय अंडमान में ही था और वहां आदिवासियों की मदद में लगा रहा। CEO रहते हुए पुनर्वास और राहत के कार्य में सक्रिय रहा। भारत सरकार ने मेरे कार्यों की सराहना की। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब वहां दौरे पर आए, तब उन्हें मेरे कामों के बारे में बताया गया। उस समय मैं दक्षिणी द्वीप में था और राहत कार्यों में लगा था। राष्ट्रपति ने अधिकारियों से कहा कि मुझे बुलाने की बजाय वो खुद मुझसे मिलने आएंगे। अगली सुबह वे आए। कार्यक्रम सिर्फ 4 मिनट का था, लेकिन वे करीब एक घंटा मेरे साथ रहे। उन्होंने हर काम का ब्यौरा लिया, द्वीपवासियों की स्थिति के बारे में पूछा और सारी बातें सुनीं। उसी शाम उन्होंने मुझे डिनर पर बुलाया और मुझसे कहा, “क्या मैं आपके साथ एक फोटो ले सकता हूं?” ये मेरी जिंदगी का कभी ना भूलने वाला वाकया था। सवाल- आपके आदर्श कौन थे? और बसवा राजू किन्हें अपना आदर्श मानता था? जवाब: मेरे लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुभाष चंद्र बोस जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी आदर्श रहे हैं। उनके बलिदान से प्रेरणा लेकर ही मैंने एयरफोर्स जॉइन की। अगर कोई मेरे व्यक्तिगत रोल मॉडल की बात करे तो मेरे पिता सबसे बड़े रोल मॉडल थे। वे एक किसान थे, लेकिन बच्चों की पढ़ाई के लिए हमेशा अपना सब कुछ झोंक देते थे। जो स्कूल उन्होंने और उनके भाइयों ने शुरू किया था, वो बाद में सरकारी स्कूल बना। मेरे लिए उनसे बड़ा कोई आदर्श नहीं है। बसवा राजू का आदर्श कौन था, ये मैं नहीं कह सकता। सवाल- आपके गांव में नक्सलवाद का प्रभाव था? किस दौर की बात है? उस वक्त माहौल कैसा था? क्या चर्चाएं होती थीं? जवाब: जब मैं स्कूल में था, हमारे इलाके में नक्सल गतिविधियां थीं, जिनकी हमें जानकारी थी। किसान वर्ग जमींदारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। उस समय हम छात्र थे और ये सारी बातें हमें किसी हद तक प्रेरित करती थीं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम सब नक्सली बन गए। मैं खुद सबसे बैकवर्ड क्लास में पैदा हुआ हूं। सवाल- परिवार को कब पता चला कि बसवा राजू नक्सलवाद की राह पर चल पड़ा है? क्या तब लगा कि अब उसका लौटना संभव नहीं? परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी? जवाब: जब हमें पता चला कि बसवा राजू माओवादी विचारधारा से जुड़ गया है, तो हम बहुत दुखी हुए। मैं चाहता था कि वह एमटेक करे, एक अच्छा करियर बनाए, एक अच्छा सरकारी अधिकारी बने, और अपने परिवार को सपोर्ट करे। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। सवाल- परिवार को डेड बॉडी नहीं मिली? आपने आखिरी बार उसे कब देखा था? जवाब: हम बहुत परेशान हैं। मैं 72 साल का हूं और वो 70 साल का था। मैं और मेरी बहनें बहुत दुखी हैं। हम सब रो रहे हैं। 45 सालों से हमने उसे देखा नहीं है। हमने आंध्र और छत्तीसगढ़ पुलिस दोनों से संपर्क किया। उन्होंने कहा – गाड़ी लेकर आओ, शव ले जाओ। हमने 6 लोगों के साथ गाड़ी भेजी। एसपी ने हमें बुलाया, मैं गया। उन्होंने कहा, छत्तीसगढ़ जाओ, वहीं अंतिम संस्कार करो। तब मैंने कहा – ये बहुत अमानवीय है, ये मानवाधिकारों के खिलाफ है। बॉडी परिवार को मिलनी चाहिए ताकि हम गांव में अंतिम संस्कार कर सकें। मैं कैसे हजारों की संख्या में अपने गांव के जान-पहचान वाले, परिवार वाले, आसपास के लोगों को छत्तीसगढ़ ले जाऊं? मैंने बाकी परिवार से बात की, कोई भी छत्तीसगढ़ में अंतिम संस्कार के लिए राज़ी नहीं था। गांव के लोग भी यही चाहते थे कि संस्कार गांव में हो। जगदलपुर पुलिस ने पहले कहा कि वो मदद करेंगे लेकिन आधे घंटे बाद ही उनका व्यवहार बदल गया। उन्होंने हमारे लोगों को धमकाया, मारने की बात कही और कहा – छत्तीसगढ़ तुरंत छोड़कर चले जाओ। बॉर्डर पर आंध्रप्रदेश पुलिस आई और हमारे लोगों को वापस ले गई। उन्होंने कहा, हमारे परमिशन के बिना छत्तीसगढ़ क्यों गए? एक पुलिस अधिकारी ने साफ धमकी दी, इस तरह की हरकतें कीं तो अंजाम भुगतना होगा। मैंने देश की सेवा की, और इसके बदले में यही रिवॉर्ड मिल रहा है। आगे कहा कि, मैं मेडिसिन के सहारे जी रहा हूं। 145 करोड़ जनता के बीच हम क्या ही हैं। हमें मार दो…मेरे भाई ने आदिवासियों और वंचितों की लड़ाई लड़ी। जो यूनिफॉर्म में लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके मरने पर आप उन्हें शहीद कहते हो और जो लोग गरीब और आदिवासियों के लिए मर रहे हैं उन्हें आप क्रिमिनल कहते हैं। लोकतंत्र की ये हालत है। मार दो हमें…हमें भी नक्सली बता दो। हम मीडिया के सामने आना भी नहीं चाहते…क्या आपने मुझे कभी मीडिया में देखा है? लेकिन जो सिचुएशन क्रिएट हुई है, इस वजह से हमें मीडिया के सामने आना पड़ रहा है। या तो हमें मार दो या हम सुसाइड कर लेते हैं।