आप पढ़ रहे हैं एक अविस्मरणीय गाथा- ‘कृष्ण विग्रह विस्थापन’। इस सीरीज में जानेंगे कैसे क्रूर बादशाह औरंगजेब के आतंक ने पांच हजार साल पुराने दिव्य कृष्ण विग्रहों को वृंदावन की गलियों से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया। सेवायतों ने जान हथेली पर रखकर सदियों पुरानी मूर्तियों को बचाया। तीसरे एपिसोड में आज पढ़िए गोपीनाथ जी के विस्थापन की कहानी। द्वापरयुग की लीला एक बार फिर दोहराई। गोपीनाथ टोकरी में बैठकर वृंदावन से निकले। वहीं, भक्त के अटूट विश्वास ने अंग्रेज अफसर को पत्थर में प्राण होने का प्रमाण दिया… कहानी से पहले ये जानना जरूरी है… 1669 के आसपास का दौर। मुगल बादशाह औरंगजेब हिंदू मंदिरों को तोड़ने का फरमान जारी कर चुका था। सैकड़ों मंदिर और विग्रह खंडित किए जा चुके थे। काशी, मथुरा, वृंदावन जैसी धर्मनगरी में शंख और आरती के स्वर मंद पड़ गए थे। हिंदू भक्त अपने घरों में ही पूजा-पाठ करके संतोष मानते। ब्रज के राजा गोकुला जाट से यह देखा न गया। उनके भीतर बदले की आग जल रही थी। मगर, छोटी-सी सेना औरंगजेब से भिड़ने के लिए काफी नहीं थी। फिर भी कुछ न कुछ करना ही था। चोरी-छिपे एक बैठक बुलाई गई। ब्रज के बच्चे-बूढ़े, आदमी-औरत, हर जाति-वर्ग के लोग आए। राजा ने ललकारकर पूछा- “सिर्फ धूप-दीप जलाना और ठाकुर जी को भोग लगाना ही धर्म है? अगर ऐसा होता तो भगवान कुरुक्षेत्र में अर्जुन से शस्त्र उठाने को न कहते। ये समय चुप रहकर सहन करने का नहीं है।” एक आदमी बोला- “हम इतनी बड़ी फौज का मुकाबला कैसे करेंगे?”
राजा ने हुंकार भरी- “बालगोपाल अकेले कालिया नाग पर भारी पड़े थे। हमारे अंदर भी उनका अंश है। फिर हम सब मिलकर लड़े तो ये मुगल टिक नहीं पाएंगे।” राजा की बातें सुनकर सभी सोच में पड़ गए। कुछ डरे और परेशान हुए। फिर सभी के अंदर एक उम्मीद और हिम्मत जगी। एक लड़का खड़ा हुआ और पूरे जोश में बोला- “हम कट जाएंगे, लेकिन अपने लालजू पर आंच नहीं आने देंगे।” धीरे-धीरे और लोग भी खड़े हुए और उद्घोष हुआ- “सुदर्शनधारी कृष्ण की… जय” देखते ही देखते करीब 10 हजार भक्त मुगल फौज से लड़ने को तैयार हो गए। महावन में सिहोरा गांव के पास मुगल फौज और कृष्णभक्तों का आमना-सामना हुआ। मुगल फौजदार अब्दुल नबी ग्वालों, किसानों और जाट सैनिकों की मिली-जुली फौज देखकर दंग रह गया और नाक सिकोड़कर बोला- “मंदिर में घंटियां बजाने वाले काफिरों में इतनी हिम्मत कहां से आई?”
एक सिपाही ने बताया- “हुजूर, गोकुला जाट ने इन्हें इकट्ठा किया है।”
अब्दुल नबी चिढ़कर बोला- “ये बेजान पत्थरों पर क्या चढ़ाते हैं?” सिपाही बोला- “दूध, घी… और मक्खन।” एक ठहाका गूंजा। फिर अब्दुल नबी बोला, “पत्थरों पर मांस भी चढ़ता है क्या?”
कुटिल मुस्कान के साथ सिपाही बोला- “नहीं हुजूर, इससे पत्थर नापाक हो जाता है।”
अब्दुल नबी तुरंत बोला- “आज हम इनके भगवान को इन्हीं काफिरों के खून से नहलाएंगे।” मुगल फौज और कृष्णभक्तों के बीच भयंकर लड़ाई हुई। ब्रज की मिट्टी, मुगलिया तोपों पर भारी पड़ी। मुगल फौज को काफी नुकसान हुआ। अब्दुल नबी मारा गया। कुछ समय तक ब्रज में शांति रही, लेकिन सभी जानते थे कि दोबारा हमला हुआ तो तबाही तय है। ‘गोपियों के नाथ’ ने छोड़ा वृंदावन अविरल और शांत यमुना का किनारा। तट पर गोपीनाथ मंदिर के कुछ गोस्वामी आपस में बात कर रहे थे। उनके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी। परेशानी की वजह मौत का डर नहीं, गोपीनाथ जी के विग्रह को बचाना था। कभी भी कुछ हो सकता था। एक युवा गोस्वामी ध्यान में बैठे बड़े गोस्वामी के पास गया और बोला- “महाराज जी, वृंदावन वीरान हो गया है। भजन नहीं, पूजा-आरती नहीं और आप ध्यान रमा रहे हैं। आपको डर नहीं लगता?” बड़े गोस्वामी ने ध्यान तोड़ा। वे कुछ पल चुपचाप बैठे रहे। फिर गहरी सांस लेकर बोले- “राखे कृष्ण मारे के, मारे कृष्ण राखे के।” मतलब, भगवान कृष्ण रक्षा करें तो कौन मार सकता है। अगर कृष्ण किसी को मारना चाहें तो उसे कौन बचा सकता है? अचानक माहौल बदल गया। गोपीनाथ के सेवायतों (पुजारी) का विश्वास लौट आया था। तभी एक गोस्वामी आगे बढ़ा और कांपती आवाज में बोला- “महाराज, नगर के हर मोड़, गली पर मुगल सिपाही पहरा दे रहे हैं। बाहर निकलना बहुत मुश्किल है। कैसे निकलेंगे? तैयारी भी कैसे करें ?” बड़े गोस्वामी मुस्कराए, बोले- “चिंता मत करो, बस देखते जाओ। प्रभु जाना चाहें तो उन्हें कोई रोक पाएगा?” कुछ देर रुककर बोले- “कुछ टोकरियों और ढेर सारी घास का इंतजाम करो। गोपीनाथ जी को उसमें छिपाकर ब्रज से बाहर निकालेंगे। राजा गोकुला को भी खबर कर दो। वो हमारी मदद करेंगे।” एक गोस्वामी राजा के महल की ओर दौड़ पड़ा। अन्य सेवायत बाकी इंतजाम करने में जुट गए। एक टोकरी में गोपीनाथ और दूसरी में राधारानी का विग्रह रखकर ऊपर ढेर सारी घास रख दी गई। कुछ अन्य टोकरियों में सिर्फ घास थी। सभी गोस्वामियों ने एक-एक टोकरी अपने सिर पर रखी और चल दिए। द्वापर की लीला कलयुग में दोहराई जा रही थी। द्वापर में बाबा वसुदेव, कंस के कारागार से कन्हैया को ले गए थे। इस बार वृंदावन के गोसाईं मुगलों की नजरों से कान्हा को बचा रहे थे। गोस्वामियों की टोली धीरे-धीरे चली जा रही थी। मुगल सैनिक पास से गुजरते तो सभी की धड़कनें बढ़ जातीं, लेकिन कृष्ण ने वृंदावन छोड़ने का मन बना लिया था। किसी पहरेदार या जासूस को जरा भी शक नहीं हुआ। टोली वृंदावन के बाहर राधाकुंड के नजदीक पहुंची। अचानक बड़े गोस्वामी की नजर राधाकुंड और मानसी गंगा के बीच एक गुफा पर गई। उन्हें वह जगह सुरक्षित लगी। बडे़ गोस्वामी जानते थे कि यात्रा लंबी है, इसमें पड़ाव जरूरी हैं। उन्होंने साथी सेवायतों से कहा- “गोपीनाथ जी कुछ दिन इसी गुफा में विराजेंगे।” आस्था की ऊर्जा से भरे एक सेवायत को वहां रुकना ठीक नहीं लगा। उसने कई मंदिर टूटते देखे थे। वह चिंतित स्वर में बोला- “लेकिन महाराज, मुगलों के लिए अपने कई भाई-बंधु भी जासूसी करते हैं। उन्हें भनक लगी तो अनर्थ हो जाएगा।” बड़े गोस्वामी ने उसे समझाया- “ये जगह सुरक्षित है। फिर गोकुला जाट के सिपाही भी हमारे साथ हैं। प्रभु इच्छा से ही सब हो रहा है।” प्रभु की इच्छा से दिन हफ्तों में बदले फिर महीने और साल बीत गए। कामवन का अल्प विराम, राजा त्रिलोक चंद्र का डर गुफा में कुछ साल बिताने के बाद गोस्वामी विग्रह लेकर आगे बढ़े और कामवन (कामां) पहुंचे। वहां के राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति गोपीनाथ जी को देखकर भावविभोर हो उठे। “अहोभाग्य!” राजा त्रिलोक चंद्र ने कहा, “ठाकुर खुद सेवक के घर पधारे हैं।” गोपीनाथ के लिए राजा के मन में बहुत श्रद्धा थी, लेकिन मन के किसी कोने में औरंगजेब का खौफ भी था। औरंगजेब न केवल मंदिरों के खिलाफ था, बल्कि आस्थावान राजाओं से भी चिढ़ता था। त्रिलोक चंद्र को राजा गोकुला जाट के बारे में पता चला था। सिहोरा में मुगल फौज की हार से औरंगजेब बौखला गया था। उसने हसन अली को फौजदार बनाकर फिर से राजा गोकुला से लड़ने भेजा। राजा और कृष्णभक्तों ने शाही सेना से कड़ा मुकाबला किया, लेकिन हार गए। 5 हजार भक्त मारे गए, 7 हजार कैद कर लिए गए। राजा गोकुला और उनके परिवार के लोगों को आगरा ले जाया गया। कोतवाली के सामने उनके टुकड़े-टुकड़े करके मार दिया गया। यह सब सोचकर राजा त्रिलोक चंद्र काफी परेशान थे। अपनी दुविधा लेकर वे बड़े गोस्वामी से मिलने पहुंचे। उन्होंने दबे स्वर में कहा- “महाराज, क्यों न गोपीनाथ जी को जयपुर में स्थापित किया जाए?”
बड़े गोस्वामी कुछ देर उनकी तरफ देखते रहे। फिर पूछा- “ऐसा क्यों?” त्रिलोक चंद्र बोले- “औरंगजेब हिंदुओं के खून का प्यासा है। वह यहां भी हमला कर सकता है। गोपीनाथ की सुरक्षा केवल आमेर के राजा ही कर सकते हैं। मुगलों से उनकी संधि है। मुगल उन्हें नाराज नहीं करेंगे।” त्रिलोक चंद्र आंखें झुकाकर आगे बोले- “मेरे बस में हो तो प्रभु को यहां से जाने न दूं। पूरी जिंदगी गोपीनाथ की सेवा में गुजार दूं, लेकिन मेरी किस्मत…। मैं मजबूर हूं।” राजा की बात पूरी हुई। कमरे में एकदम से सन्नाटा छा गया। सभी चुप थे। इससे त्रिलोक चंद्र और परेशान हो गए। उन्होंने बड़े गोस्वामी की तरफ देखा और उनके पैर पकड़कर कांपते स्वर में पूछा- “क्या मुझसे कोई पाप हो रहा है?” बड़े गोस्वामी ने हल्की मुस्कान के साथ राजा की तरफ देखा। फिर धीरे, लेकिन दृढ़ स्वर में बोले- “राजन, आपके मन में भक्ति और सेवा है। डर और चिंता उस समय पैदा होती है, जब हम कर्तव्य और परिस्थिति के बीच फंस जाते हैं। आपने अपनी सीमा को समझा, ये विवेक है, पाप नहीं।” बड़े गोस्वामी की बात सुनकर राजा त्रिलोक चंद्र का मन शांत हुआ। गोस्वामियों ने आगे की यात्रा की तैयारी के लिए एक दिन का समय मांगा। गोपीनाथ कामवन में अब सिर्फ एक दिन के मेहमान थे। राजा-रानी ने पूरा दिन गोपीनाथ की सेवा में बिताया। देर रात तक कीर्तन होता रहा। शयन आरती के बाद राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति काफी देर तक बैठे रोते रहे। बड़े गोस्वामी ने उन्हें समझाया- “आप लोग खुद को दोषी मत मानिए। गोपीनाथ अपनी इच्छा से आमेर जा रहे हैं। उन्हें कामवन में रुकना होता तो वे कोई लीला जरूर करते।” राजा बोले- “मैं जानता हूं स्वामी जी, आप ये सब मुझे ढांढस देने के लिए कह रहे हैं… लेकिन मैं समझ रहा हूं मुझसे कितना बड़ा पाप हो रहा है। मरने के बाद मैं अपने पुरखों को क्या मुंह दिखाऊंगा?” इतना कहकर राजा फूट-फूटकर रोने लगे। आसपास खड़े सभी गोस्वामियों की आंखों में भी आंसू थे। बड़े गोस्वामी ने किसी तरह राजा और रानी को समझाकर आराम करने भेजा। सुबह मंगला आरती हुई। राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति ने कांपते हाथों से गोपीनाथ को प्रणाम किया। गोपीनाथ जी बैलगाड़ी में विराजमान थे। सभी सेवक, भक्त और गोस्वामी उनके साथ आगे बढ़ गए। इस तरह सिर्फ तीन दिन कामवन में रहने के बाद, गोपीनाथ आमेर (अब जयपुर) की ओर चल दिए। दान की होड़ और दीवान की आस्था तब का कामवन आज राजस्थान के डीग जिले में कामां के नाम से जाना जाता है। वहां से आमेर यानी अब के जयपुर के रास्ते में शेखावाटी इलाका पड़ता है। गोपीनाथ शेखावाटी राजाओं के इष्टदेव हैं। ऐसे में जिन इलाकों से बैलगाड़ी गुजरती, वहां के राजा गोपीनाथ का स्वागत करते। हीरे, जवाहरात, जमीन न्यौछावर कर देते। मंडावा के राजा ने 300 बीघा जमीन गोपीनाथ जी के नाम कर दी। यह खबर पूरे शेखावाटी में फैल गई। इसके बाद एक अन्य राजा ने अपनी जागीर की 10% जमीन गोपीनाथ को भेंट कर दी। देखते ही देखते दासारामगढ़, नवलगढ़ जैसे इलाकों के राजाओं में ‘दशांश’ (संपत्ति का दसवां हिस्सा) दान करने की होड़ मच गई। गोपीनाथ, जो घास की टोकरी में चले थे, अब उनके लिए राजाओं ने अपना खजाना खोल दिया था। गोपीनाथ आमेर पहुंचे। माधोविलास उनका नया ठिकाना बना। राग-भोग और सेवा में 17 साल बीत गए। एक दिन जयपुर के दीवान खुशहालीराम बोहरा शयन आरती के समय माधोविलास पहुंचे। आरती के बाद बोहरा ने सभी सेवायतों से बात करनी चाही। सभी इकट्ठा हुए। बोहरा मुख्य गोस्वामी की तरफ देखते हुए बोले- “आज्ञा हो तो मैं अपनी सबसे बड़ी हवेली गोपीनाथ जी को सौंपना चाहता हूं।”
सभी चौंक गए। एक गोसाईं बोला- “आपका विचार बहुत अच्छा है दीवान जी, लेकिन आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?”
बोहरा ने झेंपते हुए कहा- “मेरी कोई औलाद नहीं है। धन-संपति का कोई वारिस नहीं है। कब मेरे प्राण निकल जाएं, पता नहीं। मैं चाहता हूं कि गोपीनाथ की कृपा से मेरी पीढ़ियां तर जाएं।” पूरे शहर में बात फैल गई, ‘अब से गोपीनाथ, बोहरा की बड़ी हवेली में रहेंगे।’ हवेली को मंदिर का रूप दिया जाने लगा। दीवारों पर राधाकृष्ण की लीलाएं उकेरी गईं। दरवाजे का आकार इस तरह बदला गया कि अंदर आते ही भक्तों को गोपीनाथ के दर्शन हों। आखिरकार गोपीनाथ के उस हवेली में विराजने का दिन आया। पूरा शहर घंटी, शंख और कीर्तन की ध्वनियों से गूंज उठा। आसपास की रियासतों से तमाम लोग और राजा-महाराजा जयपुर आए। सैकड़ों हाथी-घोड़ों के साथ गोपीनाथ और राधारानी की शोभायात्रा निकली। 1792 के उस दिन से यह जुगल जोड़ी बोहरा की कोठी में विराजमान है। पत्थर में प्राण और अंग्रेज की घड़ी धीरे-धीरे मुगलों का दौर खत्म हुआ। अंग्रेजों का शासन आया। एक बार अंग्रेज अफसर जैकब गोपीनाथ मंदिर पहुंचा। गोपीनाथ जी का श्रृंगार, भोग और भक्तों की आस्था देखकर वह चौंक गया। उसके मन में भी वही सवाल उठा- “पत्थर की एक मूर्ति के लिए इतना इंतजाम?” उसने मुख्य सेवायत मदन गोस्वामी से रूखे भाव में पूछा- “इन पत्थरों को क्यों पूजते हो? ऐसा क्या है इसमें?” तीखे सवाल सुनकर भी मदन गोस्वामी के चेहरे का भाव तनिक भी न बदला। वे जानते थे अंग्रेज की गोपीनाथ में आस्था नहीं है। हल्की सी मुस्कान के साथ मदन गोस्वामी बोले- “ये मूर्ति नहीं साक्षात गोपीनाथ हैं। इनमें प्राण हैं।” अंग्रेज ठहाका लगाकर हंसा और बोला- “इसे साबित कर सकते हो?”
फिर अपनी कलाई से घड़ी उतारकर गोस्वामी को देते हुए बोला- “ये घड़ी कलाई पर बांधने के बाद नब्ज से चलती है। ये पहनाओ अपने भगवान को। मैं भी देखूं पत्थर में प्राण हैं कि नहीं।” गोस्वामी ने गोपीनाथ की कलाई पर घड़ी बांधी, घड़ी नहीं चली। गोस्वामी ने घड़ी उतारकर दोबारा पहनाई। घड़ी फिर रुकी रही। एक बार फिर ऐसा किया, लेकिन घड़ी नहीं चली। मदन गोस्वामी शांत खड़े थे। उन्हें पता था कि घड़ी चलेगी। अंग्रेज घमंड से मुस्कुरा रहा था। गोस्वामी ने एक बार फिर घड़ी पहनाई। इस बार घड़ी से टिक-टिक की आवाज आने लगी। घड़ी चल रही थी। जैकब का चेहरा लाल हो गया। गोस्वामी अब भी शांत थे। उनके लिए यह नया नहीं था। अंग्रेज को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह चिढ़ गया और बिना घड़ी लिए मंदिर से चला गया। इसके बाद से गोपीनाथ के हाथ से घड़ी उतारी नहीं गई। काफी साल बाद जब घड़ी खराब हो गई तो रिपेयरिंग के लिए भेजी गई, लेकिन घड़ीसाज ने वह घड़ी कभी वापस नहीं लौटाई। इसके बाद से गोपीनाथ को बैटरी से चलने वाली घड़ी पहनाई जा रही है। स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार **** रेफरेंस लक्ष्मी नारायण तिवारी, सचिव- ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृंदावन। ब्रज विभव: संपादक गोपाल प्रसाद व्यास। मथुरा-वृंदावन के वृहद हिंदू मंदिर: डॉ चंचल गोस्वामी। द कंट्रीब्यूशन ऑफ मेजर हिंदू टेंपल्स ऑफ मथुरा एंड वृंदावन: डॉ चंचल गोस्वामी। औरंगजेबनामा: संपादक डॉ अशोक कुमार सिंह। ब्रज के धर्म संप्रदायों का इतिहास: प्रभुदयाल मीतल। सनातन के संरक्षण में कछवाहों का योगदान: डॉ सुभाष शर्मा-जितेंद्र शेखावत। जयपुर इतिहास के जानकार- जितेंद्र शेखावत, संतोष शर्मा, प्रो देवेंद्र भगत (राजस्थान यूनिवर्सिटी)। गोपीनाथ जी के वृंदावन से जयपुर पहुंचने तक की पूरी कहानी क्रमवार ढंग से किसी एक किताब में नहीं मिलती। भास्कर टीम ने कई दस्तावेजों और इतिहास के जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर यह स्टोरी लिखी है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है।
आप पढ़ रहे हैं एक अविस्मरणीय गाथा- ‘कृष्ण विग्रह विस्थापन’। इस सीरीज में जानेंगे कैसे क्रूर बादशाह औरंगजेब के आतंक ने पांच हजार साल पुराने दिव्य कृष्ण विग्रहों को वृंदावन की गलियों से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया। सेवायतों ने जान हथेली पर रखकर सदियों पुरानी मूर्तियों को बचाया। तीसरे एपिसोड में आज पढ़िए गोपीनाथ जी के विस्थापन की कहानी। द्वापरयुग की लीला एक बार फिर दोहराई। गोपीनाथ टोकरी में बैठकर वृंदावन से निकले। वहीं, भक्त के अटूट विश्वास ने अंग्रेज अफसर को पत्थर में प्राण होने का प्रमाण दिया… कहानी से पहले ये जानना जरूरी है… 1669 के आसपास का दौर। मुगल बादशाह औरंगजेब हिंदू मंदिरों को तोड़ने का फरमान जारी कर चुका था। सैकड़ों मंदिर और विग्रह खंडित किए जा चुके थे। काशी, मथुरा, वृंदावन जैसी धर्मनगरी में शंख और आरती के स्वर मंद पड़ गए थे। हिंदू भक्त अपने घरों में ही पूजा-पाठ करके संतोष मानते। ब्रज के राजा गोकुला जाट से यह देखा न गया। उनके भीतर बदले की आग जल रही थी। मगर, छोटी-सी सेना औरंगजेब से भिड़ने के लिए काफी नहीं थी। फिर भी कुछ न कुछ करना ही था। चोरी-छिपे एक बैठक बुलाई गई। ब्रज के बच्चे-बूढ़े, आदमी-औरत, हर जाति-वर्ग के लोग आए। राजा ने ललकारकर पूछा- “सिर्फ धूप-दीप जलाना और ठाकुर जी को भोग लगाना ही धर्म है? अगर ऐसा होता तो भगवान कुरुक्षेत्र में अर्जुन से शस्त्र उठाने को न कहते। ये समय चुप रहकर सहन करने का नहीं है।” एक आदमी बोला- “हम इतनी बड़ी फौज का मुकाबला कैसे करेंगे?”
राजा ने हुंकार भरी- “बालगोपाल अकेले कालिया नाग पर भारी पड़े थे। हमारे अंदर भी उनका अंश है। फिर हम सब मिलकर लड़े तो ये मुगल टिक नहीं पाएंगे।” राजा की बातें सुनकर सभी सोच में पड़ गए। कुछ डरे और परेशान हुए। फिर सभी के अंदर एक उम्मीद और हिम्मत जगी। एक लड़का खड़ा हुआ और पूरे जोश में बोला- “हम कट जाएंगे, लेकिन अपने लालजू पर आंच नहीं आने देंगे।” धीरे-धीरे और लोग भी खड़े हुए और उद्घोष हुआ- “सुदर्शनधारी कृष्ण की… जय” देखते ही देखते करीब 10 हजार भक्त मुगल फौज से लड़ने को तैयार हो गए। महावन में सिहोरा गांव के पास मुगल फौज और कृष्णभक्तों का आमना-सामना हुआ। मुगल फौजदार अब्दुल नबी ग्वालों, किसानों और जाट सैनिकों की मिली-जुली फौज देखकर दंग रह गया और नाक सिकोड़कर बोला- “मंदिर में घंटियां बजाने वाले काफिरों में इतनी हिम्मत कहां से आई?”
एक सिपाही ने बताया- “हुजूर, गोकुला जाट ने इन्हें इकट्ठा किया है।”
अब्दुल नबी चिढ़कर बोला- “ये बेजान पत्थरों पर क्या चढ़ाते हैं?” सिपाही बोला- “दूध, घी… और मक्खन।” एक ठहाका गूंजा। फिर अब्दुल नबी बोला, “पत्थरों पर मांस भी चढ़ता है क्या?”
कुटिल मुस्कान के साथ सिपाही बोला- “नहीं हुजूर, इससे पत्थर नापाक हो जाता है।”
अब्दुल नबी तुरंत बोला- “आज हम इनके भगवान को इन्हीं काफिरों के खून से नहलाएंगे।” मुगल फौज और कृष्णभक्तों के बीच भयंकर लड़ाई हुई। ब्रज की मिट्टी, मुगलिया तोपों पर भारी पड़ी। मुगल फौज को काफी नुकसान हुआ। अब्दुल नबी मारा गया। कुछ समय तक ब्रज में शांति रही, लेकिन सभी जानते थे कि दोबारा हमला हुआ तो तबाही तय है। ‘गोपियों के नाथ’ ने छोड़ा वृंदावन अविरल और शांत यमुना का किनारा। तट पर गोपीनाथ मंदिर के कुछ गोस्वामी आपस में बात कर रहे थे। उनके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी। परेशानी की वजह मौत का डर नहीं, गोपीनाथ जी के विग्रह को बचाना था। कभी भी कुछ हो सकता था। एक युवा गोस्वामी ध्यान में बैठे बड़े गोस्वामी के पास गया और बोला- “महाराज जी, वृंदावन वीरान हो गया है। भजन नहीं, पूजा-आरती नहीं और आप ध्यान रमा रहे हैं। आपको डर नहीं लगता?” बड़े गोस्वामी ने ध्यान तोड़ा। वे कुछ पल चुपचाप बैठे रहे। फिर गहरी सांस लेकर बोले- “राखे कृष्ण मारे के, मारे कृष्ण राखे के।” मतलब, भगवान कृष्ण रक्षा करें तो कौन मार सकता है। अगर कृष्ण किसी को मारना चाहें तो उसे कौन बचा सकता है? अचानक माहौल बदल गया। गोपीनाथ के सेवायतों (पुजारी) का विश्वास लौट आया था। तभी एक गोस्वामी आगे बढ़ा और कांपती आवाज में बोला- “महाराज, नगर के हर मोड़, गली पर मुगल सिपाही पहरा दे रहे हैं। बाहर निकलना बहुत मुश्किल है। कैसे निकलेंगे? तैयारी भी कैसे करें ?” बड़े गोस्वामी मुस्कराए, बोले- “चिंता मत करो, बस देखते जाओ। प्रभु जाना चाहें तो उन्हें कोई रोक पाएगा?” कुछ देर रुककर बोले- “कुछ टोकरियों और ढेर सारी घास का इंतजाम करो। गोपीनाथ जी को उसमें छिपाकर ब्रज से बाहर निकालेंगे। राजा गोकुला को भी खबर कर दो। वो हमारी मदद करेंगे।” एक गोस्वामी राजा के महल की ओर दौड़ पड़ा। अन्य सेवायत बाकी इंतजाम करने में जुट गए। एक टोकरी में गोपीनाथ और दूसरी में राधारानी का विग्रह रखकर ऊपर ढेर सारी घास रख दी गई। कुछ अन्य टोकरियों में सिर्फ घास थी। सभी गोस्वामियों ने एक-एक टोकरी अपने सिर पर रखी और चल दिए। द्वापर की लीला कलयुग में दोहराई जा रही थी। द्वापर में बाबा वसुदेव, कंस के कारागार से कन्हैया को ले गए थे। इस बार वृंदावन के गोसाईं मुगलों की नजरों से कान्हा को बचा रहे थे। गोस्वामियों की टोली धीरे-धीरे चली जा रही थी। मुगल सैनिक पास से गुजरते तो सभी की धड़कनें बढ़ जातीं, लेकिन कृष्ण ने वृंदावन छोड़ने का मन बना लिया था। किसी पहरेदार या जासूस को जरा भी शक नहीं हुआ। टोली वृंदावन के बाहर राधाकुंड के नजदीक पहुंची। अचानक बड़े गोस्वामी की नजर राधाकुंड और मानसी गंगा के बीच एक गुफा पर गई। उन्हें वह जगह सुरक्षित लगी। बडे़ गोस्वामी जानते थे कि यात्रा लंबी है, इसमें पड़ाव जरूरी हैं। उन्होंने साथी सेवायतों से कहा- “गोपीनाथ जी कुछ दिन इसी गुफा में विराजेंगे।” आस्था की ऊर्जा से भरे एक सेवायत को वहां रुकना ठीक नहीं लगा। उसने कई मंदिर टूटते देखे थे। वह चिंतित स्वर में बोला- “लेकिन महाराज, मुगलों के लिए अपने कई भाई-बंधु भी जासूसी करते हैं। उन्हें भनक लगी तो अनर्थ हो जाएगा।” बड़े गोस्वामी ने उसे समझाया- “ये जगह सुरक्षित है। फिर गोकुला जाट के सिपाही भी हमारे साथ हैं। प्रभु इच्छा से ही सब हो रहा है।” प्रभु की इच्छा से दिन हफ्तों में बदले फिर महीने और साल बीत गए। कामवन का अल्प विराम, राजा त्रिलोक चंद्र का डर गुफा में कुछ साल बिताने के बाद गोस्वामी विग्रह लेकर आगे बढ़े और कामवन (कामां) पहुंचे। वहां के राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति गोपीनाथ जी को देखकर भावविभोर हो उठे। “अहोभाग्य!” राजा त्रिलोक चंद्र ने कहा, “ठाकुर खुद सेवक के घर पधारे हैं।” गोपीनाथ के लिए राजा के मन में बहुत श्रद्धा थी, लेकिन मन के किसी कोने में औरंगजेब का खौफ भी था। औरंगजेब न केवल मंदिरों के खिलाफ था, बल्कि आस्थावान राजाओं से भी चिढ़ता था। त्रिलोक चंद्र को राजा गोकुला जाट के बारे में पता चला था। सिहोरा में मुगल फौज की हार से औरंगजेब बौखला गया था। उसने हसन अली को फौजदार बनाकर फिर से राजा गोकुला से लड़ने भेजा। राजा और कृष्णभक्तों ने शाही सेना से कड़ा मुकाबला किया, लेकिन हार गए। 5 हजार भक्त मारे गए, 7 हजार कैद कर लिए गए। राजा गोकुला और उनके परिवार के लोगों को आगरा ले जाया गया। कोतवाली के सामने उनके टुकड़े-टुकड़े करके मार दिया गया। यह सब सोचकर राजा त्रिलोक चंद्र काफी परेशान थे। अपनी दुविधा लेकर वे बड़े गोस्वामी से मिलने पहुंचे। उन्होंने दबे स्वर में कहा- “महाराज, क्यों न गोपीनाथ जी को जयपुर में स्थापित किया जाए?”
बड़े गोस्वामी कुछ देर उनकी तरफ देखते रहे। फिर पूछा- “ऐसा क्यों?” त्रिलोक चंद्र बोले- “औरंगजेब हिंदुओं के खून का प्यासा है। वह यहां भी हमला कर सकता है। गोपीनाथ की सुरक्षा केवल आमेर के राजा ही कर सकते हैं। मुगलों से उनकी संधि है। मुगल उन्हें नाराज नहीं करेंगे।” त्रिलोक चंद्र आंखें झुकाकर आगे बोले- “मेरे बस में हो तो प्रभु को यहां से जाने न दूं। पूरी जिंदगी गोपीनाथ की सेवा में गुजार दूं, लेकिन मेरी किस्मत…। मैं मजबूर हूं।” राजा की बात पूरी हुई। कमरे में एकदम से सन्नाटा छा गया। सभी चुप थे। इससे त्रिलोक चंद्र और परेशान हो गए। उन्होंने बड़े गोस्वामी की तरफ देखा और उनके पैर पकड़कर कांपते स्वर में पूछा- “क्या मुझसे कोई पाप हो रहा है?” बड़े गोस्वामी ने हल्की मुस्कान के साथ राजा की तरफ देखा। फिर धीरे, लेकिन दृढ़ स्वर में बोले- “राजन, आपके मन में भक्ति और सेवा है। डर और चिंता उस समय पैदा होती है, जब हम कर्तव्य और परिस्थिति के बीच फंस जाते हैं। आपने अपनी सीमा को समझा, ये विवेक है, पाप नहीं।” बड़े गोस्वामी की बात सुनकर राजा त्रिलोक चंद्र का मन शांत हुआ। गोस्वामियों ने आगे की यात्रा की तैयारी के लिए एक दिन का समय मांगा। गोपीनाथ कामवन में अब सिर्फ एक दिन के मेहमान थे। राजा-रानी ने पूरा दिन गोपीनाथ की सेवा में बिताया। देर रात तक कीर्तन होता रहा। शयन आरती के बाद राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति काफी देर तक बैठे रोते रहे। बड़े गोस्वामी ने उन्हें समझाया- “आप लोग खुद को दोषी मत मानिए। गोपीनाथ अपनी इच्छा से आमेर जा रहे हैं। उन्हें कामवन में रुकना होता तो वे कोई लीला जरूर करते।” राजा बोले- “मैं जानता हूं स्वामी जी, आप ये सब मुझे ढांढस देने के लिए कह रहे हैं… लेकिन मैं समझ रहा हूं मुझसे कितना बड़ा पाप हो रहा है। मरने के बाद मैं अपने पुरखों को क्या मुंह दिखाऊंगा?” इतना कहकर राजा फूट-फूटकर रोने लगे। आसपास खड़े सभी गोस्वामियों की आंखों में भी आंसू थे। बड़े गोस्वामी ने किसी तरह राजा और रानी को समझाकर आराम करने भेजा। सुबह मंगला आरती हुई। राजा त्रिलोक चंद्र और रानी भानुमति ने कांपते हाथों से गोपीनाथ को प्रणाम किया। गोपीनाथ जी बैलगाड़ी में विराजमान थे। सभी सेवक, भक्त और गोस्वामी उनके साथ आगे बढ़ गए। इस तरह सिर्फ तीन दिन कामवन में रहने के बाद, गोपीनाथ आमेर (अब जयपुर) की ओर चल दिए। दान की होड़ और दीवान की आस्था तब का कामवन आज राजस्थान के डीग जिले में कामां के नाम से जाना जाता है। वहां से आमेर यानी अब के जयपुर के रास्ते में शेखावाटी इलाका पड़ता है। गोपीनाथ शेखावाटी राजाओं के इष्टदेव हैं। ऐसे में जिन इलाकों से बैलगाड़ी गुजरती, वहां के राजा गोपीनाथ का स्वागत करते। हीरे, जवाहरात, जमीन न्यौछावर कर देते। मंडावा के राजा ने 300 बीघा जमीन गोपीनाथ जी के नाम कर दी। यह खबर पूरे शेखावाटी में फैल गई। इसके बाद एक अन्य राजा ने अपनी जागीर की 10% जमीन गोपीनाथ को भेंट कर दी। देखते ही देखते दासारामगढ़, नवलगढ़ जैसे इलाकों के राजाओं में ‘दशांश’ (संपत्ति का दसवां हिस्सा) दान करने की होड़ मच गई। गोपीनाथ, जो घास की टोकरी में चले थे, अब उनके लिए राजाओं ने अपना खजाना खोल दिया था। गोपीनाथ आमेर पहुंचे। माधोविलास उनका नया ठिकाना बना। राग-भोग और सेवा में 17 साल बीत गए। एक दिन जयपुर के दीवान खुशहालीराम बोहरा शयन आरती के समय माधोविलास पहुंचे। आरती के बाद बोहरा ने सभी सेवायतों से बात करनी चाही। सभी इकट्ठा हुए। बोहरा मुख्य गोस्वामी की तरफ देखते हुए बोले- “आज्ञा हो तो मैं अपनी सबसे बड़ी हवेली गोपीनाथ जी को सौंपना चाहता हूं।”
सभी चौंक गए। एक गोसाईं बोला- “आपका विचार बहुत अच्छा है दीवान जी, लेकिन आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?”
बोहरा ने झेंपते हुए कहा- “मेरी कोई औलाद नहीं है। धन-संपति का कोई वारिस नहीं है। कब मेरे प्राण निकल जाएं, पता नहीं। मैं चाहता हूं कि गोपीनाथ की कृपा से मेरी पीढ़ियां तर जाएं।” पूरे शहर में बात फैल गई, ‘अब से गोपीनाथ, बोहरा की बड़ी हवेली में रहेंगे।’ हवेली को मंदिर का रूप दिया जाने लगा। दीवारों पर राधाकृष्ण की लीलाएं उकेरी गईं। दरवाजे का आकार इस तरह बदला गया कि अंदर आते ही भक्तों को गोपीनाथ के दर्शन हों। आखिरकार गोपीनाथ के उस हवेली में विराजने का दिन आया। पूरा शहर घंटी, शंख और कीर्तन की ध्वनियों से गूंज उठा। आसपास की रियासतों से तमाम लोग और राजा-महाराजा जयपुर आए। सैकड़ों हाथी-घोड़ों के साथ गोपीनाथ और राधारानी की शोभायात्रा निकली। 1792 के उस दिन से यह जुगल जोड़ी बोहरा की कोठी में विराजमान है। पत्थर में प्राण और अंग्रेज की घड़ी धीरे-धीरे मुगलों का दौर खत्म हुआ। अंग्रेजों का शासन आया। एक बार अंग्रेज अफसर जैकब गोपीनाथ मंदिर पहुंचा। गोपीनाथ जी का श्रृंगार, भोग और भक्तों की आस्था देखकर वह चौंक गया। उसके मन में भी वही सवाल उठा- “पत्थर की एक मूर्ति के लिए इतना इंतजाम?” उसने मुख्य सेवायत मदन गोस्वामी से रूखे भाव में पूछा- “इन पत्थरों को क्यों पूजते हो? ऐसा क्या है इसमें?” तीखे सवाल सुनकर भी मदन गोस्वामी के चेहरे का भाव तनिक भी न बदला। वे जानते थे अंग्रेज की गोपीनाथ में आस्था नहीं है। हल्की सी मुस्कान के साथ मदन गोस्वामी बोले- “ये मूर्ति नहीं साक्षात गोपीनाथ हैं। इनमें प्राण हैं।” अंग्रेज ठहाका लगाकर हंसा और बोला- “इसे साबित कर सकते हो?”
फिर अपनी कलाई से घड़ी उतारकर गोस्वामी को देते हुए बोला- “ये घड़ी कलाई पर बांधने के बाद नब्ज से चलती है। ये पहनाओ अपने भगवान को। मैं भी देखूं पत्थर में प्राण हैं कि नहीं।” गोस्वामी ने गोपीनाथ की कलाई पर घड़ी बांधी, घड़ी नहीं चली। गोस्वामी ने घड़ी उतारकर दोबारा पहनाई। घड़ी फिर रुकी रही। एक बार फिर ऐसा किया, लेकिन घड़ी नहीं चली। मदन गोस्वामी शांत खड़े थे। उन्हें पता था कि घड़ी चलेगी। अंग्रेज घमंड से मुस्कुरा रहा था। गोस्वामी ने एक बार फिर घड़ी पहनाई। इस बार घड़ी से टिक-टिक की आवाज आने लगी। घड़ी चल रही थी। जैकब का चेहरा लाल हो गया। गोस्वामी अब भी शांत थे। उनके लिए यह नया नहीं था। अंग्रेज को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह चिढ़ गया और बिना घड़ी लिए मंदिर से चला गया। इसके बाद से गोपीनाथ के हाथ से घड़ी उतारी नहीं गई। काफी साल बाद जब घड़ी खराब हो गई तो रिपेयरिंग के लिए भेजी गई, लेकिन घड़ीसाज ने वह घड़ी कभी वापस नहीं लौटाई। इसके बाद से गोपीनाथ को बैटरी से चलने वाली घड़ी पहनाई जा रही है। स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार **** रेफरेंस लक्ष्मी नारायण तिवारी, सचिव- ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृंदावन। ब्रज विभव: संपादक गोपाल प्रसाद व्यास। मथुरा-वृंदावन के वृहद हिंदू मंदिर: डॉ चंचल गोस्वामी। द कंट्रीब्यूशन ऑफ मेजर हिंदू टेंपल्स ऑफ मथुरा एंड वृंदावन: डॉ चंचल गोस्वामी। औरंगजेबनामा: संपादक डॉ अशोक कुमार सिंह। ब्रज के धर्म संप्रदायों का इतिहास: प्रभुदयाल मीतल। सनातन के संरक्षण में कछवाहों का योगदान: डॉ सुभाष शर्मा-जितेंद्र शेखावत। जयपुर इतिहास के जानकार- जितेंद्र शेखावत, संतोष शर्मा, प्रो देवेंद्र भगत (राजस्थान यूनिवर्सिटी)। गोपीनाथ जी के वृंदावन से जयपुर पहुंचने तक की पूरी कहानी क्रमवार ढंग से किसी एक किताब में नहीं मिलती। भास्कर टीम ने कई दस्तावेजों और इतिहास के जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर यह स्टोरी लिखी है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है।