
चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर बयान दिया है। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना हो सकती है, लेकिन किसी भी व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों को किसी भी बाहरी दबाव से मुक्त रहना चाहिए। CJI ने कहा- 1993 से पहले भारत में जजों की नियुक्ति का अंतिम फैसला सरकार के पास होता था और इस दौरान दो बार ऐसा हुआ जब सरकार ने सीनियर जजों को नजरअंदाज कर किसी और को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। वहीं, उन्होंने रिटायर जजों के चुनाव लड़ने पर भी सवाल किया। CJI गवई लंदन में UK सुप्रीम कोर्ट की ओर से आयोजित राउंड-टेबल में बोल रहे थे। इस चर्चा में भारत से जस्टिस विक्रम नाथ और UK की सुप्रीम कोर्ट की जज बैरोनेस कार और जज जॉर्ज लेगैट भी शामिल हुए। CJI गवई की 4 बड़ी बातें… 1. 1964-1977 में सीनियर जजों को नजरअंदाज किया गया गवई ने कहा कि 1964 में जस्टिस सैयद जाफर इमाम को खराब स्वास्थ्य के चलते मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और उनकी जगह पी.बी. गजेन्द्र गडकर को नियुक्त किया गया। वहीं 1977 में जस्टिस एच.आर. खन्ना को इमरजेंसी के दौरान सरकार के खिलाफ फैसला देने पर नजरअंदाज कर दिया गया। जस्टिस खन्ना ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि “आपातकाल के दौरान भी नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म नहीं होते”, जिसे तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने पसंद नहीं किया। 2. 1993 में आया कॉलेजियम सिस्टम इसके बाद 1993 और 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि मुख्य न्यायाधीश और चार सीनियर जज मिलकर कॉलेजियम बनाएंगे, जो जजों की नियुक्ति की सिफारिश करेगा। 3. NJAC को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया गवई ने बताया कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन (NJAC) कानून को रद्द कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता था। यह कानून केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की जगह लागू करने की कोशिश की थी। 4. रिटायर जजों के चुनाव लड़ने पर भी सवाल किया CJI गवई ने यह भी कहा कि रिटायरमेंट के बाद जजों का सरकार से कोई पद लेना या चुनाव लड़ना गंभीर नैतिक चिंता का विषय है। इससे जनता में यह संदेश जा सकता है कि फैसले भविष्य की पद-लाभ की उम्मीद में दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट-राष्ट्रपति के बीच भी विवाद जारी 15 मई- राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट ने 14 सवाल पूछे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंट और गवर्नर के लिए डेडलाइन तय करने पर सवाल उठाए। राष्ट्रपति मुर्मू ने पूछा कि संविधान में इस तरह की कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे राष्ट्रपति-राज्यपाल के लिए बिलों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने का फैसला दे सकता है। मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे। मुर्मू ने राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समय-सीमा तय करने जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा। ये मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवाद पर अब तक क्या हुआ… 17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी। धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें… 18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’ सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें… 8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था। इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…
चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर बयान दिया है। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना हो सकती है, लेकिन किसी भी व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों को किसी भी बाहरी दबाव से मुक्त रहना चाहिए। CJI ने कहा- 1993 से पहले भारत में जजों की नियुक्ति का अंतिम फैसला सरकार के पास होता था और इस दौरान दो बार ऐसा हुआ जब सरकार ने सीनियर जजों को नजरअंदाज कर किसी और को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। वहीं, उन्होंने रिटायर जजों के चुनाव लड़ने पर भी सवाल किया। CJI गवई लंदन में UK सुप्रीम कोर्ट की ओर से आयोजित राउंड-टेबल में बोल रहे थे। इस चर्चा में भारत से जस्टिस विक्रम नाथ और UK की सुप्रीम कोर्ट की जज बैरोनेस कार और जज जॉर्ज लेगैट भी शामिल हुए। CJI गवई की 4 बड़ी बातें… 1. 1964-1977 में सीनियर जजों को नजरअंदाज किया गया गवई ने कहा कि 1964 में जस्टिस सैयद जाफर इमाम को खराब स्वास्थ्य के चलते मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और उनकी जगह पी.बी. गजेन्द्र गडकर को नियुक्त किया गया। वहीं 1977 में जस्टिस एच.आर. खन्ना को इमरजेंसी के दौरान सरकार के खिलाफ फैसला देने पर नजरअंदाज कर दिया गया। जस्टिस खन्ना ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि “आपातकाल के दौरान भी नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म नहीं होते”, जिसे तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने पसंद नहीं किया। 2. 1993 में आया कॉलेजियम सिस्टम इसके बाद 1993 और 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि मुख्य न्यायाधीश और चार सीनियर जज मिलकर कॉलेजियम बनाएंगे, जो जजों की नियुक्ति की सिफारिश करेगा। 3. NJAC को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया गवई ने बताया कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन (NJAC) कानून को रद्द कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता था। यह कानून केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की जगह लागू करने की कोशिश की थी। 4. रिटायर जजों के चुनाव लड़ने पर भी सवाल किया CJI गवई ने यह भी कहा कि रिटायरमेंट के बाद जजों का सरकार से कोई पद लेना या चुनाव लड़ना गंभीर नैतिक चिंता का विषय है। इससे जनता में यह संदेश जा सकता है कि फैसले भविष्य की पद-लाभ की उम्मीद में दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट-राष्ट्रपति के बीच भी विवाद जारी 15 मई- राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट ने 14 सवाल पूछे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंट और गवर्नर के लिए डेडलाइन तय करने पर सवाल उठाए। राष्ट्रपति मुर्मू ने पूछा कि संविधान में इस तरह की कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे राष्ट्रपति-राज्यपाल के लिए बिलों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने का फैसला दे सकता है। मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे। मुर्मू ने राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समय-सीमा तय करने जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा। ये मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवाद पर अब तक क्या हुआ… 17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी। धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें… 18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’ सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें… 8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था। इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…